जो लोग धर्म स्थानो पर नहीं जा पाते वह अपने घर पर ही रहकर श्राद्ध, तर्पण, पिण्ड दान एवं ब्राह्मण भोजन सहित कई अन्य उपचारों से अपने पितरों को प्रसन्न करने का प्रयास करते है।
गरूड़ पुराण के अनुसार कोई मनुष्य तन धारि जीव जब अपना वह पंचतत्व के शरीर का त्याग करता है तब मृत्यु के पश्चात मृतक व्यक्ति की आत्मा प्रेत रूप में यमलोक की यात्रा शुरू करती है। इस यात्रा के समय उस मृतक की आत्मा को उसके संतान द्वारा प्रदान किये गये पिण्डों से प्रेत योनि वाले उस आत्मा को बल मिलता है।
यमलोक में पहुंचने पर उस प्रेत आत्मा को अपने कर्म के अनुसार प्रेत योनी में ही रहना पड़ता है अथवा अन्य योनी प्रदान कर दी जाती है। कुछ व्यक्ति अपने सद कर्मों से पुण्य अर्जित करके देव लोक के वासी हो जाते है एवं पितृ लोक में स्थान प्राप्त करते हैं यहां अपने योग्य शरीर मिलने तक ऐसी आत्माएं निवास करती हैं।
शास्त्रों में बताया गया है कि चंद्र लोक से ऊपर एक अन्य लोक है जिसे पितर लोक कहते है। शास्त्रों में पितरों को देवताओं के समान पूजनीय बताया गया है। पितरों के दो रूप बताये गये हैं- पहला देव पितर और दूसरा मनुष्य पितर। देव पितर का काम न्याय करना है, देव पितर मनुष्य एवं अन्य जीवों के कर्मो के अनुसार उनका न्याय करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।
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भाषा: हिन्दी राशी : 251/-