GURU PURNIMA SPECIAL: MOTIVATIONAL STORY | गुरु गूंगे गुरु बाबरे गुरु के रहिये दास, गुरु जो भेजे नरक को, स्वर्ग की रखिये आस

गुरु गूंगे गुरु बाबरे गुरु के रहिये दास,

गुरु जो भेजे नरक को, स्वर्ग की रखिये आस ||


अर्थात : गुरु चाहे गूंगा हो चाहे गुरु बाबरा (पागल) हो गुरु के हमेशा दास रहना चाहिए। गुरु यदि नरक को भेजे तब भी शिष्य को यह इच्छा रखनी चाहिए कि मुझे स्वर्ग ही प्राप्त होगा, अर्थात इसमें मेरा कल्याण ही होगा | यदि शिष्य को गुरु पर पूर्ण विश्वास हो तो उसका बुरा स्वयं गुरु भी नहीं कर सकते।



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इस के सन्दर्भ में एक प्रेरणादायक प्रसंग प्रस्तुत है:-

एक बार की बात है नारद जी श्री विष्णु भगवान जी से मिलने गए | भगवान ने उनका बहुत सम्मान किया | जब नारद जी वहाँ से वापिस गए तब श्री विष्णुजी ने कहा "हे लक्ष्मी! जिस स्थान पर नारद जी बैठे थे। उस स्थान को गाय के गोबर से लीप दो" |

जब विष्णुजी यह बात कह रहे थे तब नारदजी बाहर ही खड़े थे। उन्होंने सब सुन लिया और वापिस आ गए और विष्णु भगवान जी से पुछा- 
"हे भगवान! जब मै आया तो आपने मेरा खूब सम्मान किया पर जब मै जा रहा था, तो आपने लक्ष्मी जी से यह क्यों कहा कि जिस स्थान पर नारद बैठा था उस स्थान को गोबर से लीप दो?"

भगवान ने कहा:- "हे नारद! मैंने आपका सम्मान इसलिए किया क्योंकि आप देव ऋषि है, और मैंने देवी लक्ष्मी से ऐसा इसलिए कहा क्योंकि आपका कोई गुरु नहीं है | अर्थात आप निगुरे है। जिस स्थान पर कोई निगुरा बैठ जाता है वो स्थान गन्दा हो जाता है |"
यह सुनकर नारद जी ने कहा:- "हे भगवान! आपकी बात सत्य है, पर मै गुरु किसे बनाऊ ? नारायण बोले:- "हे नारद! धरती पर चले जाओ जो व्यक्ति सबसे पहले मिले उसे अपना गुरु मानलो |"

नारद जी ने प्रणाम किया और चले गए | जब नारद जी धरती पर आये तो उन्हें सबसे पहले एक मछली पकड़ने वाला एक मछुवारा मिला | वो मछुआरा गंदा - मैला सा, गवार सा दिखाई दे रहा था, जिससे नारद जी को उसके रूप-वेशभूषा और दुर्गन्ध से घृणा होने लगी | 
Guru Purnima Special | प्रेरक कहानी: गुरु गूंगे, गुरु बावरे, गुरु के रहिये दास

नारद जी वापिस नारायण के पास चले गए और कहा:- "महाराज वो मछुवारा तो कुछ भी नहीं जानता, मै उसे गुरु कैसे मान सकता हूँ?"
यह सुनकर भगवान ने कहा:- "नारद जी अपना पर्ण पूरा करो |" 

Guru Purnima Special | प्रेरक कहानी: गुरु गूंगे, गुरु बावरे, गुरु के रहिये दास
नारद जी विष्णुजी की बात सुनकर वापिस आये और उस मछुवारे से गुरु बन जाने का आग्रह किया | पहले तो मछुवारा नहीं माना बाद में बहुत मनाने से मान गया | मछुवारे को राजी करने के बाद नारद जी वापिस भगवान के पास गए और कहा:- "हे भगवान! मेरे गुरूजी को तो कुछ भी नहीं आता, वे मुझे क्या सिखायेगे ?" 

यह सुनकर विष्णु जी को क्रोध आ गया और उन्होंने कहा:- "हे नारद गुरु निंदा करते हो जाओ मै आपको श्राप देता हूँ कि आपको 84 लाख योनियों में घूमना पड़ेगा |"

यह सुनकर नारद जी ने दोनों हाथ जोड़कर कहा:- "हे भगवान! इस श्राप से बचने का उपाय भी बता दीजिये ?" 
भगवान नारायण ने कहा:- "इसका उपाय जाकर अपने गुरुदेव से पूछो |" 

नारद जी ने सारी बात जाकर गुरुदेव को बताई | गुरूजी ने कहा:- "ऐसा करना भगवान से कहना 84 लाख योनियों की तस्वीरे धरती पर बना दे फिर उस पर लेट कर गोल घूम लेना और विष्णु जी से कहना 84 लाख योनियों में घूम आया मुझे माफ़ करदो आगे से गुरु निंदा नहीं करूँगा |"

नारद जी ने विष्णु जी के पास जाकर वैसा ही किया जैसा की उनके गुरूजी ने उन्हें बताया | नारद जी ने विष्णु जी के पास जाकर उनसे कहा"- "हे प्रभु! 84 लाख योनिया धरती पर बना दो |" और फिर उन पर लेट कर घूम लिए और कहा :- "हे नारायण! मुझे माफ़ कर दीजिये आगे से कभी गुरु निंदा नहीं करूँगा |" 

यह सुनकर विष्णु जी ने कहा:- "देखा! जिस गुरु की निंदा कर रहे थे उसी ने मेरे श्राप से बचा लिया | हे नारदजी गुरु की महिमा अपरम्पार है |"

एक प्रसंग है कि एक पंडीत ने धन्ने भगत को एक साधारण पत्थर देकर कहा इसे भोग लगाया करो एक दिन भगवान कृष्ण दर्शन देगे | उस धन्ने भक्त के विश्वास से एक दिन उस पत्थर से भगवान प्रकट हो गए | फिर गुरु पर तो वचन विश्वास रखने वाले का उद्धार निश्चित है |



पूर्ण सूर्य ग्रहण के बाद साल का दूसरा चंद्र ग्रहण आने वाला है | साल 2018 की तरह इस बार भी यह चंद्र ग्रहण गुरु पूर्णिमा के दिन 16 जुलाई को पड़ रहा है |

Guru Purnima Special : Bhagat Dhanna Jaat Katha Motivational Story | भक्त धन्ना जाट प्रेरणादायक कहानी कथा

भक्त धन्ना जाट

धन्ना जाट एक ग्रामीण किसान का सीधा-सादा लड़का था | गाँव में आये हुए किसी पण्डित से भागवत की कथा सुनी थी | पण्डित जब सप्ताह पूरी करके, गाँव से दक्षिणा, माल-सामग्री लेकर घोड़े पर रवाना हो रहे थे तब धन्ना जाट ने घोड़े पर बैठे हुए पण्डित जी के पैर पकड़ेः


"महाराज ! आपने कहा कि ठाकुरजी की पूजा करने वाले का बेड़ा पार हो जाता है | जो ठाकुरजी की सेवा-पूजा नहीं करता वह इन्सान नहीं हैवान है | गुरु महाराज ! आप तो जा रहे हैं | मुझे ठाकुरजी की पूजा की विधि बताते जाइये |"


"जैसे आये वैसे करना |"


"स्वामी ! मेरे पास ठाकुरजी नहीं हैं |"


"ले आना कहीं से |"


"मुझे पता नहीं ठाकुरजी कहाँ होते हैं, कैसे होते हैं | आपने ही कथा सुनायी | आप ही गुरु महाराज हैं | आप ही मुझे ठाकुरजी दे दो |"


पण्डित जान छुड़ाने में लगा था लेकिन धन्ना जाट अपनी श्रद्धा की दृढ़ता में अडिग रहा | आखिर उस भँगेड़ी पण्डित ने अपने झोले में से भाँग घोटने का सिलबट्टा निकालकर धन्ना को दे दियाः "ले यह ठाकुर जी | अब जा |"


"पूजा कैसे करूँ गुरुदेव ! यह तो बताओ !''


गुरु महाराज ने कहाः "नहाकर नहलैयो और खिलाकर खइयो | स्वयं स्नान करके फिर ठाकुरजी को स्नान कराना | पहले ठाकुरजी को खिलाकर फिर खाना | बस इतनी ही पूजा है |"


धन्ना जाट ने सिलबट्टा ले जाकर घर में प्रस्थापित किया लेकिन उसकी नजरों में वह सिलबट्टा नहीं था | उसकी बुद्धि में वह साक्षात ठाकुर जी थे | पहले स्वयं स्नान किया | फिर भगवान को स्नान कराया | अब पहले उनको खिलाकर फिर खाना है | विधवा माई का लड़का | बाप मर चुका था | छोटा-सा खेत | उसमें जो मिले उसी से आजीविका चलानी थी | रोज एक रोटी हिस्से में आती थी | बाजरे का टिक्कड़ और प्याज या चटनी | छप्पन भोग नहीं | ठाकुरजी के आगे थाली रखकर हाथ जोड़े और प्रार्थना कीः "प्रभु ! खाओ | फिर मैं खाऊँ | मुझे बहुत भूख लगी है |


अब वह सिलबट्टा ! मूर्ति भी नहीं खाती तो सिलबट्टा कहाँ से खाय? लेकिन धन्ना की बुद्धि में ऐसा नहीं था |


"ठाकुरजी ! वे पण्डित जी तो चले गये | उनके पास खीर खाने को मिलती थी तो खाते थे | मुझ गरीब की रोटी आप नहीं  खाते? आप दयालु हो | मेरी हालत जानते हो | फिर आप ऐसा क्यों करते हो? खाओ न ! आप शरमाते हो? अच्छा मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ, खाओ |"


फिर आँख खोलकर धन्ना देखता है कि रोटी पड़ी है | खायी नहीं | धन्ना भूखा सो गया | गुरु महाराज ने कहा है कि खिलाकर खइयो | ठाकुरजी नहीं खाते तो हम कैसे खायें? एक दिन बीता | दूसरे दिन ताजी रोटी लाकर धरी | 'चलो, पहले दिन पण्डित जी का वियोग हुआ इसकी याद में नहीं खाया होगा | आज तो खाओ |' लेकिन धन्ना को निराश होना पड़ा | चार दिन ऐसे ही बीत गये |


धन्ना जाट के मन में बस गया कि ये ठाकुर जी हैं और रोटी नहीं खाते | कभी न कभी रोटी खायेंगे... खायेंगे | एकाग्रता ही हुई, और क्या हुआ?


चार-चार दिन बीत गये | ठाकुरजी ने तो खाया नहीं | धन्ना भूखा-प्यासा बैठा रहा | रोज ताजी रोटी लाकर ठाकुरजी को भोग लगाता रहा | पाँचवें दिन भी सूर्योदय हुआ और अस्त हो गया | छठा दिन भी ऐसे ही बीत गया |


सातवें दिन धन्ना आ गया अपने जाटपने पर | छः दिन की भूख-प्यास ने उसे विह्वल कर रखा था | प्रभु की विराग्नि ने हृदय के कल्मषों को जला दिया था | धन्ना अपनी एवं ठाकुरजी की भूख-प्यास बरदाश्त नहीं कर सका | वह फूट-फूटकर रोने लगा, पुकारने लगा, प्यार भरे उलाहने देने लगाः


"मैंने सुना था कि तुम दयालु हो लेकिन तुममें इतनी कठोरता, हे नाथ ! कैसे आयी? मेरे कारण तुम छः दिन से भूखे प्यासे हो ! क्या  गरीब हूँ इसलिए ? रूखी रोटी है इसलिए ? मुझे मनाना नहीं आता इसलिए ? अगर तुम्हें आना नहीं है तो मुझे जीना भी नहीं है |"


उठाया छुरा | शुद्ध भाव से, सच्चे हृदय से ज्यों अपनी बलि देने को उद्यत हुआ त्यों ही उस सिलबट्टे से तेजोमय प्रकाश-पुञ्ज प्रकट हुआ, धन्ना का हाथ पकड़ लिया और कहाः


"धन्ना ! देख मैं खा रहा हूँ |"


ठाकुरजी रोटी खा रहे हैं और धन्ना उन्हें निहार रहा है | फिर बोलाः "आधी मेरे लिए भी रखो | मैं भी भूखा हूँ |"


"तू दूसरी खा लेना |"


"माँ एक रोटी देती मेरे हिस्से की | दूसरी लूँगा तो वह भूखी रहेगी |"


"ज्यादा रोटी क्यों नहीं बनाते?"


"छोटा-सा खेत है | कैसे बनायें?"


"और किसी का खेत जोतने को लेकर खेती क्यों नहीं करते?"


"अकेला हूँ | थक जाता हूँ |"


"नौकर क्यों नहीं रख लेते?"


"पैसे नहीं हैं | बिना पैसे का नौकर मिले तो आधी रोटी खिलाऊँ और काम करवाऊँ |"


"बिना पैसे का नौकर तो मैं ही हूँ |"


प्रभु ने कहीं नहीं कहा कि आप मुझे धन अर्पण करो, गहने अर्पण करो, फल-फूल अर्पण करो, छप्पन भोग अर्पण करो | जब कहीं कुछ कहा तो यही कहा है कि मैं प्यार का भूखा हूँ | प्यार गरीब और धनी, पढ़ा हुआ और अनपढ़, मूर्ख और विद्वान, सब प्रभु को प्यार कर सकते हैं | प्रभु को प्यार करने में आप स्वतंत्र हैं | अमेरिका जाने में आप स्वतंत्र नहीं | वीजा की गुलामी करनी पड़ती है लेकिन आत्मदेव में जाने के लिए किसी वीजा की जरूरत नहीं | परमात्मा को प्यार करने में आप नितान्त स्वतंत्र हैं |


कथा कहती है कि धन्ना जाट के यहाँ ठाकुरजी साथी के रूप में काम करने लगे | जहाँ उनके चरण पड़े वहाँ खेत छनाछन, रिद्धि-सिद्धि हाजिर | कुछ ही समय में धन्ना ने खूब कमाया | दूसरा खेत लिया, तीसरा लिया, चौथा लिया | वह एक बड़ा जमींदार बन गया | घर के आँगन में दुधारू गाय-भैंसे बँधी थीं | सवारी के लिए श्रेष्ठ घोड़ा था |


दो-चार-पाँच साल के बाद वह पण्डित आया गाँव में तो धन्ना कहता हैः "गुरु महाराज ! तुम जो ठाकुरजी दे गये थे न ! वे छः दिन तो भूखे रहे | तुम्हारी चिन्ता में रोटी नहीं खायी | बाद में जब मैंने उनके समक्ष 'नहीं' हो जाने की तैयारी की तब रोटी खायी | पहले मैं गरीब था लेकिन अब ठाकुर जी की बड़ी कृपा है |"


पण्डित ने सोचा कि अनपढ़ छोकरा है, बेवकूफी की बात करता है | बोलाः "अच्छा.... अच्छा, जा | ठीक है |"


"ऐसा नहीं गुरु महाराज ! आज से आपको घी-दूध जो चाहिए वह मेरे यहाँ से आया करेगा | और.... एक दिन आपको मेरे यहाँ भोजन करने आना पड़ेगा |"


पण्डित ने लोगों से पूछा तो लोगों ने बताया किः "हाँ महाराज ! जरूर कुछ चमत्कार हुआ है | बड़ा जमींदार बन गया है | कहता है कि भगवान उसका काम करते हैं | कुछ भी हो लेकिन वह रंक से राय हो गया है |


पण्डित ने धन्ना से कहाः "जो तेरा काम कराने आते हैं उन ठाकुरजी को मेरे पास लाना | फिर तेरे घर चलेंगे |"


दूसरे दिन धन्ना ने ठाकुरजी से बात की तो ठाकुरजी ने बतायाः
"उसको अगर लाया तो मैं भाग जाऊँगा |"


पण्डित की एकाग्रता नहीं थी, तप नहीं था, प्रेम नहीं था, हृदय शुद्ध नहीं था | जरूरी नहीं की पण्डित होने के बाद हृदय शुद्ध हो जाय | राग और द्वेष हमारे चित्त को अशुद्ध करते हैं | निर्दोषता हमारे चित्त को शुद्ध करती है | शुद्ध चित्त चैतन्य का चमत्कार ले आता है |