भक्त धन्ना जाट
धन्ना जाट एक ग्रामीण किसान का सीधा-सादा लड़का था | गाँव में आये हुए किसी पण्डित से भागवत की कथा सुनी थी | पण्डित जब सप्ताह पूरी करके, गाँव से दक्षिणा, माल-सामग्री लेकर घोड़े पर रवाना हो रहे थे तब धन्ना जाट ने घोड़े पर बैठे हुए पण्डित जी के पैर पकड़ेः
"महाराज ! आपने कहा कि ठाकुरजी की पूजा करने वाले का बेड़ा पार हो जाता है | जो ठाकुरजी की सेवा-पूजा नहीं करता वह इन्सान नहीं हैवान है | गुरु महाराज ! आप तो जा रहे हैं | मुझे ठाकुरजी की पूजा की विधि बताते जाइये |"
"जैसे आये वैसे करना |"
"स्वामी ! मेरे पास ठाकुरजी नहीं हैं |"
"ले आना कहीं से |"
"मुझे पता नहीं ठाकुरजी कहाँ होते हैं, कैसे होते हैं | आपने ही कथा सुनायी | आप ही गुरु महाराज हैं | आप ही मुझे ठाकुरजी दे दो |"
पण्डित जान छुड़ाने में लगा था लेकिन धन्ना जाट अपनी श्रद्धा की दृढ़ता में अडिग रहा | आखिर उस भँगेड़ी पण्डित ने अपने झोले में से भाँग घोटने का सिलबट्टा निकालकर धन्ना को दे दियाः "ले यह ठाकुर जी | अब जा |"
"पूजा कैसे करूँ गुरुदेव ! यह तो बताओ !''
गुरु महाराज ने कहाः "नहाकर नहलैयो और खिलाकर खइयो | स्वयं स्नान करके फिर ठाकुरजी को स्नान कराना | पहले ठाकुरजी को खिलाकर फिर खाना | बस इतनी ही पूजा है |"
धन्ना जाट ने सिलबट्टा ले जाकर घर में प्रस्थापित किया लेकिन उसकी नजरों में वह सिलबट्टा नहीं था | उसकी बुद्धि में वह साक्षात ठाकुर जी थे | पहले स्वयं स्नान किया | फिर भगवान को स्नान कराया | अब पहले उनको खिलाकर फिर खाना है | विधवा माई का लड़का | बाप मर चुका था | छोटा-सा खेत | उसमें जो मिले उसी से आजीविका चलानी थी | रोज एक रोटी हिस्से में आती थी | बाजरे का टिक्कड़ और प्याज या चटनी | छप्पन भोग नहीं | ठाकुरजी के आगे थाली रखकर हाथ जोड़े और प्रार्थना कीः "प्रभु ! खाओ | फिर मैं खाऊँ | मुझे बहुत भूख लगी है |
अब वह सिलबट्टा ! मूर्ति भी नहीं खाती तो सिलबट्टा कहाँ से खाय? लेकिन धन्ना की बुद्धि में ऐसा नहीं था |
"ठाकुरजी ! वे पण्डित जी तो चले गये | उनके पास खीर खाने को मिलती थी तो खाते थे | मुझ गरीब की रोटी आप नहीं खाते? आप दयालु हो | मेरी हालत जानते हो | फिर आप ऐसा क्यों करते हो? खाओ न ! आप शरमाते हो? अच्छा मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ, खाओ |"
फिर आँख खोलकर धन्ना देखता है कि रोटी पड़ी है | खायी नहीं | धन्ना भूखा सो गया | गुरु महाराज ने कहा है कि खिलाकर खइयो | ठाकुरजी नहीं खाते तो हम कैसे खायें? एक दिन बीता | दूसरे दिन ताजी रोटी लाकर धरी | 'चलो, पहले दिन पण्डित जी का वियोग हुआ इसकी याद में नहीं खाया होगा | आज तो खाओ |' लेकिन धन्ना को निराश होना पड़ा | चार दिन ऐसे ही बीत गये |
धन्ना जाट के मन में बस गया कि ये ठाकुर जी हैं और रोटी नहीं खाते | कभी न कभी रोटी खायेंगे... खायेंगे | एकाग्रता ही हुई, और क्या हुआ?
चार-चार दिन बीत गये | ठाकुरजी ने तो खाया नहीं | धन्ना भूखा-प्यासा बैठा रहा | रोज ताजी रोटी लाकर ठाकुरजी को भोग लगाता रहा | पाँचवें दिन भी सूर्योदय हुआ और अस्त हो गया | छठा दिन भी ऐसे ही बीत गया |
सातवें दिन धन्ना आ गया अपने जाटपने पर | छः दिन की भूख-प्यास ने उसे विह्वल कर रखा था | प्रभु की विराग्नि ने हृदय के कल्मषों को जला दिया था | धन्ना अपनी एवं ठाकुरजी की भूख-प्यास बरदाश्त नहीं कर सका | वह फूट-फूटकर रोने लगा, पुकारने लगा, प्यार भरे उलाहने देने लगाः
"मैंने सुना था कि तुम दयालु हो लेकिन तुममें इतनी कठोरता, हे नाथ ! कैसे आयी? मेरे कारण तुम छः दिन से भूखे प्यासे हो ! क्या गरीब हूँ इसलिए ? रूखी रोटी है इसलिए ? मुझे मनाना नहीं आता इसलिए ? अगर तुम्हें आना नहीं है तो मुझे जीना भी नहीं है |"
उठाया छुरा | शुद्ध भाव से, सच्चे हृदय से ज्यों अपनी बलि देने को उद्यत हुआ त्यों ही उस सिलबट्टे से तेजोमय प्रकाश-पुञ्ज प्रकट हुआ, धन्ना का हाथ पकड़ लिया और कहाः
"धन्ना ! देख मैं खा रहा हूँ |"
ठाकुरजी रोटी खा रहे हैं और धन्ना उन्हें निहार रहा है | फिर बोलाः "आधी मेरे लिए भी रखो | मैं भी भूखा हूँ |"
"तू दूसरी खा लेना |"
"माँ एक रोटी देती मेरे हिस्से की | दूसरी लूँगा तो वह भूखी रहेगी |"
"ज्यादा रोटी क्यों नहीं बनाते?"
"छोटा-सा खेत है | कैसे बनायें?"
"और किसी का खेत जोतने को लेकर खेती क्यों नहीं करते?"
"अकेला हूँ | थक जाता हूँ |"
"नौकर क्यों नहीं रख लेते?"
"पैसे नहीं हैं | बिना पैसे का नौकर मिले तो आधी रोटी खिलाऊँ और काम करवाऊँ |"
"बिना पैसे का नौकर तो मैं ही हूँ |"
प्रभु ने कहीं नहीं कहा कि आप मुझे धन अर्पण करो, गहने अर्पण करो, फल-फूल अर्पण करो, छप्पन भोग अर्पण करो | जब कहीं कुछ कहा तो यही कहा है कि मैं प्यार का भूखा हूँ | प्यार गरीब और धनी, पढ़ा हुआ और अनपढ़, मूर्ख और विद्वान, सब प्रभु को प्यार कर सकते हैं | प्रभु को प्यार करने में आप स्वतंत्र हैं | अमेरिका जाने में आप स्वतंत्र नहीं | वीजा की गुलामी करनी पड़ती है लेकिन आत्मदेव में जाने के लिए किसी वीजा की जरूरत नहीं | परमात्मा को प्यार करने में आप नितान्त स्वतंत्र हैं |
कथा कहती है कि धन्ना जाट के यहाँ ठाकुरजी साथी के रूप में काम करने लगे | जहाँ उनके चरण पड़े वहाँ खेत छनाछन, रिद्धि-सिद्धि हाजिर | कुछ ही समय में धन्ना ने खूब कमाया | दूसरा खेत लिया, तीसरा लिया, चौथा लिया | वह एक बड़ा जमींदार बन गया | घर के आँगन में दुधारू गाय-भैंसे बँधी थीं | सवारी के लिए श्रेष्ठ घोड़ा था |
दो-चार-पाँच साल के बाद वह पण्डित आया गाँव में तो धन्ना कहता हैः "गुरु महाराज ! तुम जो ठाकुरजी दे गये थे न ! वे छः दिन तो भूखे रहे | तुम्हारी चिन्ता में रोटी नहीं खायी | बाद में जब मैंने उनके समक्ष 'नहीं' हो जाने की तैयारी की तब रोटी खायी | पहले मैं गरीब था लेकिन अब ठाकुर जी की बड़ी कृपा है |"
पण्डित ने सोचा कि अनपढ़ छोकरा है, बेवकूफी की बात करता है | बोलाः "अच्छा.... अच्छा, जा | ठीक है |"
"ऐसा नहीं गुरु महाराज ! आज से आपको घी-दूध जो चाहिए वह मेरे यहाँ से आया करेगा | और.... एक दिन आपको मेरे यहाँ भोजन करने आना पड़ेगा |"
पण्डित ने लोगों से पूछा तो लोगों ने बताया किः "हाँ महाराज ! जरूर कुछ चमत्कार हुआ है | बड़ा जमींदार बन गया है | कहता है कि भगवान उसका काम करते हैं | कुछ भी हो लेकिन वह रंक से राय हो गया है |
पण्डित ने धन्ना से कहाः "जो तेरा काम कराने आते हैं उन ठाकुरजी को मेरे पास लाना | फिर तेरे घर चलेंगे |"
दूसरे दिन धन्ना ने ठाकुरजी से बात की तो ठाकुरजी ने बतायाः
"उसको अगर लाया तो मैं भाग जाऊँगा |"
पण्डित की एकाग्रता नहीं थी, तप नहीं था, प्रेम नहीं था, हृदय शुद्ध नहीं था | जरूरी नहीं की पण्डित होने के बाद हृदय शुद्ध हो जाय | राग और द्वेष हमारे चित्त को अशुद्ध करते हैं | निर्दोषता हमारे चित्त को शुद्ध करती है | शुद्ध चित्त चैतन्य का चमत्कार ले आता है |
No comments:
Post a Comment